रविवार, अगस्त 03, 2014

रिक्त नहीं थी मैं

तुमने कहा
तुम अपना दर्द मुझे दो
मैं उसें ख़ुशी मैं बदल दूंगा
मान गई मैं
तुमने कहा
तुम अपने आँसूं मुझे दे दो
मैं उसें हंसीं मैं बदल दूंगा
मान गई मैं
तुमने कहा
तुम अपनी दरकन मुझे दो
उसें जुड़ाव में बदल दूंगा
मान गई मैं
तुमने कहा
तुम अपनी रिक्तता मुझे दो
भर दूंगा उसें
नहीं मानी मैं
क्योंकि
रिक्त नहीं थी मैं
नस-नस मैं थी
उसकी याद
हृदय में था
उसका कंपन
कानों में थी
उसकी गूंज
होंठों पर था
उसका नाम
आत्मा में था
उसका संचार
मुझमे था वो
रिक्त नहीं थी मैं

 पुस्तक ज़र्र- ज़र्रे में वो है से यह कविता

शनिवार, अगस्त 02, 2014


तुमने कहा
मुहब्बत में मत  भटको 
परमतत्व ढूंढो
दिन रात 
भूखी प्यासी
लगी रही ढूँढने में  
परमतत्व 
जाने कितने 
दिवस ,मास 
बरस ,युग 
बीत गए 
पर नहीं मिला 
 वो परमतत्व 
और मैं जानती हूँ 
कि वो कभी मिलेगा भी नहीं 
क्योंकि 
तुम्हारे कहे में आकर 
छोड़ जो दिया 
मैंने उस तक पंहुचने का 
सही रास्ता 
जो था सिर्फ 
और सिर्फ 
मुहब्बत 
ज़र्रे-ज़र्रे  से 
मुहब्बत 
आशा पांडे ओझा

इनके हाथ कहाँ से लगी प्रेम किताब

क्यों दहकते हैं पलाश के जंगल 
गली,घर,दरवाजे,खिड़की जंगल
दस्तक देती 
किसको ढूंढती फिरती है फाल्गुन की
ये बावरी हवाएं 
फूलों की खातिर उलझ-उलझ कर काँटों से
क्यों जख्मी हो जाती है रोज ही
ये पगली तितलियाँ
रेगिस्तान के सूने सीने में
हूड्ड़ हूड्ड़ कर बजता
सदियों ये किसी की याद का अंधड़
आसमां के सीने में
किसकी कमी ने भर दिया
दरिया दरिया गुब्बार
युगों से रत्ती भर भी कम न पड़ी
ये पपीहे के कलेजे में
अंबर-धरा को विगलित करती
किसके नाम की उठती है हूक
इतना तो जान पाई हूँ ये सब ही हैं प्रेमपगे
पर कहो न
इनके हाथ कहाँ से लगी प्रेम किताब ?
आशा पाण्डेय ओझा