रविवार, अप्रैल 11, 2010
रविवार, मार्च 28, 2010
अंधी हो गई
मूल्य लालटेन का
नहीं जुटा पाई
जब वह
बेचती गई
खुद को
रोशनी की खातिर
अंधी हो गई
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
नहीं जुटा पाई
जब वह
बेचती गई
खुद को
रोशनी की खातिर
अंधी हो गई
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "से
नही करती व्यक्त
नही करती व्यक्त
प्रतिक्रिया
अब किसी भी बात पर
शायद ये खबर है
मेरे पागल होने की
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पर "से
ओ ह्रदय!
ओ हृदय !
लड़ो मस्तिष्क से
रखो उसें निज अधीन
मस्तिष्क का तुम पर आधिपत्य
बना देगा ,सृष्टी सवेंदनहीन
मेरी पुस्तक "वक्त की शाख पे "
दुछत्ती सा मन
घर की दुछत्ती सा निरंतर अथाह अनंत दुखों का बोझ ढोता है मन
ज़िंदगी फ़िर भी करती है कोशिश बैठक की तरह मुस्कराने की
मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से
रविवार, मार्च 21, 2010
ग़ज़ल
ग़ज़ल
हर एक लफ्ज़ में ग़म अपना ढाल लेते हैं
हर इक वरक पर कलेजा निकाल लेते हैं
हम जानते हैं ये पहलू भी दोनों तेरे ही हैं
सुकून भर को ये सिक्का उछाल लेते हैं
अजीब शोर है अहसास का मेरे दिल में
गुब्बारे दिल से ये सागर निकाल लेते हैं
ज़हर पियेगा भला कौन इन हवाओं का
मिज़ाजे शिव की तरह खुद में ढाल लेते हैं
तेरी बेवफ़ाई पे यकीं करें तो मर ही जायें शायद
यह ख़याल ही दिल से निकाल लेते हैं
ये दर्दो -ग़म भी कहाँ ख़त्म होंगे आशा के
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