रविवार, मार्च 28, 2010

दुछत्ती सा मन

घर की दुछत्ती सा निरंतर अथाह अनंत दुखों का बोझ ढोता है मन ज़िंदगी फ़िर भी करती है कोशिश बैठक की तरह मुस्कराने की मेरी पुस्तक "एक कोशिश रोशनी की ओर "से

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